पितृपक्ष में खरीददारी करना शुभ होता है या अशुभ ?
कुछ लोग मानते हैं कि पितृपक्ष के दौरान नए वस्त्र, वाहन आदि की खरीददारी नहीं करनी चाहिए, आइए जानते हैं, इन मान्यताओं का आधार। पितृपक्ष के बारे में ऐसी मान्यता है कि इस अवधि में खरीदारी करने से पितरों के प्रति आपकी श्रृद्धा और आस्था में कमी आ जाती है। इसलिए कहा जाता है पितृ पक्ष् में नई चीजों की खरीद करने से बचना चाहिए।
ब्रह्मपुराण और गरुड़पुराण में श्राद्धकर्म को काफी विस्तार से बताया गया है। प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को नमन करने का संस्कार भारतीय संस्कृति में विद्यमान है, घर, व्यापारिक स्थल या शुभ कार्यों की सफलता के लिए पितरों के प्रति सम्मान और उनका आशीर्वाद लेना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि पितृ तृप्ति के बिना देवता भी आशीर्वाद नहीं देते। शास्त्रों के अनुसार देवी-देवता भी प्रतीक्षा करते हैं कि कब पितरों की आज्ञा हो और निवेदक को सुफल प्रदान करें। पितृ श्राद्ध पर केवल भोजन व दान मात्र से ही खुश नहीं होते, वे यह भी देखते हैं कि हमारे परिवार वाले पूर्वजों के लिए क्या कर रहे हैं, दिवंगत होने के इतने वर्ष व्यतीत होने के बाद भी किस प्रकार का भाव उनके वंशजों के भीतर विद्यमान है। सच्ची श्रद्धा से अर्पित की गई कोई वस्तु को पितृदेव खुशी से ग्रहण कर तृप्त हो जाते हैं।
पितृपक्ष में खरीददारी करना शुभ होता है या अशुभ ?
पितृपक्ष में खरीदारी न करें, ऐसा किसी प्रमाणित ग्रंथ में उल्लिखित नहीं है, हां, यह जरूर है कि पूरे साल के 365 दिनों में मात्र 15 दिन ही पितरों को श्रद्धांजली, पिण्डदान आदि के लिए दिए गए हैं, अतः सम्पूर्ण वर्ष के 15 दिन भी सांसारिक मोहमाया का त्याग कर पितरों का न स्मरण कर सकें तो हम कैसी संतानें हैं क्योंकि आज हम सब जहां पर जिस भी मोड़ पर खड़े हैं, वह हमारे पूर्वजों की मेहनत एवं प्रयास की ही देन है। सामाजिक विरासत के तौर पर पितृपक्ष को हम एक प्रकार से पितरों का सामूहिम मेला भी कह सकते हैं।
पितृपक्ष में जो भी हम पितरों के निमित्त निकालते हैं, वह उसे सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं क्योंकि श्राद्धपक्ष में पितृगण अपने-अपने स्वजनों के यहां बिना आह्वान किए पहुंचते हैं और पंद्रह दिनों तक वहीं विद्यमान रहते हैं इसलिए लोक व्यवहार में खरीददारी आदि करने की बजाए हिन्दुओं के अधिकांश घरों में पितरों को प्रसन्न करने के लिए दान-पुण्य कर्म किए जाते हैं। लोक व्यवहार में मनुष्य एकाग्र चित्त होकर श्राद्धपक्ष में पितरों के प्रति समर्पित हो सकें, इसलिए इस काल में सांसारिक कामों से दूर रहने की बात कही गई है। भारतीय परम्परा में तीन ऋणों से मुक्त होने को मनुष्य का कर्तव्य कहा गया है, अतः साल में कम से कम 15 दिन ही सही, पितरों के प्रति श्रद्धाभाव से पितृयज्ञ करना
पंडित दीपक पाण्डेय
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